शत्रुंजयगिरी महातीर्थ फागुन फेरी.....
फाल्गुन सुदी १३
शत्रुंजयगिरी महातीर्थ
फागुन फेरी.....
इस पुनीत पावन दिवस पर अनुकूलता हो तो प्रत्येक जैन को पालिताना पहुंच कर गिरिराज की महायात्रा जरुर कर अपना जन्म सार्थक करना चाहिए...
किन्तु .....
यात्रा में निम्न बातो का ध्यान अवश्य रखें...
१. सूर्योदय से यात्रा शुरू न कर सके तो कम से कम अँधेरा हटने के बाद गिरिराज पर चढना शुरू करना चाहिए।
२. यथा शक्ति चलकर ही यात्रा करनी चाहिए डोली में यात्रा न करे, चलकर यात्रा न कर सके तो तलेटी की यात्रा ही करके भी पुण्य कमा सकते है।
३. जय तलेटी सिद्धगिरी का चरण है, और चरण-वंदन की महिमा हम सभी जानते है।
४. गिरिराज के ऊपर शक्य हो तो वापरना नही चाहिए यदि शक्ति न होतो पानी वापर सकते है।
५. गिरिराज पर यात्रा के दौरान जय तलेटी, शांतिनाथ भगवान्, रायण पगलाजी, पुंडरिक स्वामी एवं श्री आदेश्वर भगवान् कुल पाँच चैत्यवंदन करने चाहिए।
६. गिरिराज की आशाताना हो ऐसा कोई भी कृत्य नही करना चाहिए जैसे शौच, थूकना, प्लास्टिक आदि कचरा नही फैकना चाहिए।
७. यात्रा पूर्ण हो जाने के बाद नीचे उतरकर भाता का लाभ लेना-देना चाहिए, बाहर खोमचे की चीजे नही वापराय।
८. जिनालय में प्रभु को सिर्फ सुखी चीजे ही चढ़ाएं, या रकम कल्याणजी आनंदजी पेढ़ी में जमा कराएँ, जो तीर्थ की देख-रेख का कार्य सुचारू रूप से कर रहें, अनुमोदनीय है।
९. तीर्थ में जीव-हिंसा की ओर विशेष ध्यान देना चाहिए, यह सर्वोपरि धर्म है।
१०. हमारे द्वारा जाने, अनजाने में भी पाप-कर्म बंध ना हो... जिस तरह तीर्थ भूमि पर किये पुनीत कार्यों का सैकड़ों गुणा पुण्य-कर्म बंध होता है, उसी तरह पापमयी कार्यों का भी सैकड़ों गुणा पाप-कर्म बंध होता है... विशेष संज्ञान में लेवें।
उपरोक्त सु-विचारों का पालन सिर्फ तीर्थ में ही नही, जिनमंदिर, उपाश्रय में भी, हर जगह कार्यान्वित करने की जरुरत है !
इस पुण्यमयी शाश्वत तीर्थ पर ५०० धनुष की काया वाले ऋषभदेव भगवान् यहां पूर्व नवाणु वार शत्रुंजयगिरी पधारें, साथ में ८४ लाख वर्ष पूर्व की उम्रवाले ८४ गणधर पधारे, ८४ हजार मुनि, ३ लाख साध्वीजी, ३ लाख ५ हजार श्रावक और ५.५४ लाख श्रविकाएँ पधारे।
प्रभु ने रायण वृक्ष के निचे, पूर्व नव्वाणु वार देवताओं द्वारा बनाये समोवसरण में देशना दी थी। यह समोवसरण एक योजन विस्तार वाला एवं अढि गाउ ऊँचा, रत्न-सुवर्ण वाला, चारों तरफ २० हजार सीढ़ियों वाला असंख्य बार देवताओं ने बनाया। प्रभु यहाँ हर फागुण सुदी ८ को धर्मदेशना देते थे।
चक्रवर्ती भरत के द्वारा भराई गयी ५०० धनुष के आकार एवं अमूल्य रत्नों की प्रतिमाजी को चौथे आरे के आरंभ में सगर चक्रवती ने चिल्लण तालाब के निकट कोठा फल के वृक्ष के निचे गुफा में स्थापित कर दी थी।
अहो भाग्य...
दादा ऋषभदेव का इतिहास जानने को मिला, जिनकी धर्म देशना से करोड़ो करोड़ वर्ष बीत जाने के बाद, आज भी मानव के दिलों-दिमाग में करुणा, वात्सल्य, त्याग, अहिंसा आदि के साथ जीवन जीने के गुण मौजद है। इतिहास वर्णित है, इस तीर्थ की शुद्ध भाव और शुद्ध क्रिया से यात्रा, आराधना करने वाली आत्मा अवश्य ही सद्-गति मिलते हुए परम्-गति को प्राप्त करती है।
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